नजरिया बदलो, महंगाई अच्छी लगेगी – मधुकर पवार

मधुकर पवार (स्वतंत्र लेखक)

इन दिनों पैट्रोल और डीजल के साथ रोज़मर्रा की वस्तुओं के दामों में हो रही बेतहाशा वृद्धि को लेकर प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और मीडिया पर जमकर विरोध प्रदर्शन देखा जा रहा है। ऐसा लगता है, पूरा देश महंगाई की भीषण आग में जल रहा है और हमारे देश के कर्णधार हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था। कुछ ऐसा ही माहौल बताया और बनाया जा रहा है। जब समाचार पढ़ते और देखते हैं, तब लगता है, महंगाई तो सुरसा के माफिक दिन दूनी – रात चौगुनी बढ़ते ही जा रही है । ठीक इसके विपरीत बाज़ारों में लगातार बढ़ती भीड़ कुछ और ही बयां करती है। विरोधाभास के बीच महंगाई तो हमारे लिए गले में फंसी हड्डी के समान हो गई है। सामान खरीदने की ईच्छा भी होती है और दुकान पर जाकर यह कहकर उल्टे पैर वापस आ जाते हैं कि अभी तो देखने आए हैं… दो- चार दिन बाद आकर खरीदकर ले जाएंगे।

कुछ दिन पहले ही पैट्रोल की कीमत ने बहु-प्रतीक्षित शतक लगाया, तब समूचे विपक्ष ने विधवा विलाप किया । मीडिया में महंगाई के विरोध और पक्ष में भी बहुतेरे तर्क आए । विरोध में बताया गया महंगाई बढ़ने का एक मात्र कारण डीजल और पैट्रोल के दामों में वृद्धि है जबकि एक वर्ग ऐसा भी है, जो यह मानता है कि पैट्रोल और डीजल के दाम पड़ौसी देश पाकिस्तान, बांगलादेश, नेपाल और विश्व के अनेक मुल्कों की तुलना में काफी कम है। और यह भी तर्क दिया गया महंगाई बढ़ना विकास का द्योतक है। अर्थात विकास करना है तो महंगाई बढ़नी ही चाहिए । इसका सीधा अर्थ तो यही हुआ कि विकास और मंहगाई का चोली – दामन का साथ है। अब “सबका साथ – सबका विकास” के स्थान पर नारा यह होना चाहिए … महंगाई का साथ – सबका विकास। यानि बिना महंगाई के विकास संभव ही नहीं है। एक तर्क यह भी दिया गया कि जिन देशों में पैट्रोल और डीजल के दाम कम हैं, वहाँ रोज़मर्रा की वस्तुएं भारत की तुलना में काफी महंगी हैं। ये बात कितनी सही है, पता नहीँ….. लेकिन जिस दमदारी से तर्क दिया जा रहा है, उससे तो यही लगता है कि शायद वे सही हैं।

हाल ही में एक अभिन्न मित्र से महंगाई पर चर्चा हुई। मैंने कहा… कितनी महंगाई बढ़ गई है? हर वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे हैं। आम आदमी को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। उन्होने तपाक से कहा – कौन सी वस्तु महंगी हुई है, बताएं ? मैंने गेहूं, चावल, दाल, तेल, डीजल, पैट्रोल आदि के दाम बढ़ने का जिक्र किया तो उन्होने जवाब दिया- आपको तो महंगाई भत्ता मिल जाता है। फिर आप पर कौन सा अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है। मैंने कहा- ठीक है। हमें तो महंगाई भत्ता मिल जाता है लेकिन आम आदमी, मजदूर, गरीब आदि को तो दिक्कतें आ रही हैं। उन्होने कहा- आप अपनी फिक्र कीजिये… सरकार तो उनकी खिदमत कर ही रही है। किसानों को हर साल छह हजार रूपये दिये जा रहे हैं। कोरोना काल में तो प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना में 80 करोड़ से अधिक लोगों को हर माह पाँच – पाँच किलो अनाज और पंद्रह सौ रूपये दिये गए । फिर इन लोगों को महंगाई का क्या असर ? मैं निरूत्तर हो गया और सोचने लगा…. मुझे अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। तभी तो कहते हैं… नजरिया बदलो, नजारे बदल जाएँगे और महंगाई भी अच्छी लगने लगेगी ।

जबसे मैंने अपना नजरिया बदला है …सब कुछ सामान्य लगने लगा है। पैट्रोल पंप पर पहले जैसी ही भीड़ है। वाहन चालक जितना पहले डीजल – पैट्रोल भरवाते थे, उतना ही भरवा रहे हैं। जेब से रूपये देते समय किसी के भी चेहरे पर सिकन का नामो निशान नहीं । इसका तो सीधा सा अर्थ यही हुआ कि महंगाई का आम उपभोक्ता ( आदमी ) पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ा। ऐसा लग रहा है, पैट्रोल के शतक लगते ही आम आदमी का ध्यान पैट्रोल की कीमत से हट गया है। अब उसका बर्ताव सामान्य हो गया है। आम आदमी की उत्सुकता केवल पैट्रोल की कीमत सौ रूपये तक ही थी । जैसे ही पैट्रोल के दाम सौ रूपये के पार पहुंचे, बड़ी संख्या में लोगों ने पैट्रोल भरवाने के बाद बड़ी शान से बिल लिया और सोशल मीडिया पर डालकर यह बताने का प्रयास किया कि विकास की दौड़ में वे भी पीछे नहीँ हैं। अब तो पैट्रोल की कीमत पर कोई भी चर्चा नहीं करता। अब चर्चा इस बात की हो रही है कि डीजल का शतक कब लगता है? आखिर शतक का अपना महत्व होता है। सचिन तेंडुलकर को तो शतकों के कारण ही भारत रत्न तक मिल गया ।

महंगाई के बारे में बात करना और संकीर्णता अच्छी बात नहीँ है। महंगाई को देखने का नजरिया बदलने की जरूरत है। आय और वस्तुओं की कीमतों का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे तो लगेगा कि महंगाई तो बिलकुल भी नहीँ बढ़ी है। पिछले दिनों ही एक संदेश पढ़ने में आया…. पहले पाँच सौ रूपये में सौ लीटर पैट्रोल आता था और इतनी ही राशि में एक तोला सोना। अब पाँच सौ रूपये में पाँच लीटर पैट्रोल लेकिन एक तोला सोना पचास हजार रूपये में। तर्क यह था कि पहले एक तोला सोना की कीमत में सौ लीटर पैट्रोल खरीदते थे । अब एक तोला सोना की कीमत में पाँच सौ लीटर पैट्रोल खरीदा जा सकता है। ऐसे ही एक मित्र ने बताया कि जिस दर से अन्य वस्तुओं के दाम बढ़ रहे हैं, गेहूं सात हजार रूपये क्विंटल होना चाहिए। यानि कि उपभोक्ताओं को गेहूं बहुत ही सस्ता मिल रहा है। तथाकथित तर्कशास्त्रियों (अर्थशास्त्री नहीं) का तर्क यह था कि महंगाई बिलकुल भी नहीँ बढ़ी है। लगता है, सरकार को भी यह तर्क भा गया है, तभी तो महंगाई के मुद्दे पर सभी चुप्पी साधे हुए हैं।

राजनीति में महंगाई सबसे पसंदीदा विषय रहता है। महंगाई का बढ़ना नेताओं की सेहत के लिए अच्छा माना जाता है। बयानबाजी, पुतला दहन, धरना, भूख हड़ताल आदि बढ़ती महंगाई का विरोध जताने के माध्यम हैं और इन्हीं से नेताओं को ऊर्जा भी मिलती है। लोकतन्त्र की नेताओं के बिना कल्पना भी नहीँ की जा सकती इसलिए लोकतंत्र की मजबूती के लिए नेताओं का और नेताओं की अच्छी सेहत के लिए महंगाई का होना बेहद जरूरी है। लेकिन महंगाई केवल हमारे देश में ही नहीँ होती, पूरे विश्व में है और जब इसकी तुलना कर पक्ष आंकड़े जारी करता है, तब हमें भी बड़ा गर्व होता है कि हमारे देश में महंगाई पड़ौसी या विश्व के अन्य देशों की तुलना में काफी कम है। ऐसे आंकड़ों से ही हमें महंगा सामान खरीदने पर भी सुकून मिलता है।

गुणीजन कहते हैं कि सुखी रहना है तो अपने से नीचे वालों यानि कम आय वालों को देखो। यदि ऊपर की ओर ( अंबानी – अडानी की ओर नहीं ) देखना शुरू कर दिया तो सुख चैन हराम । ईश्वर से प्रार्थना जरूर कीजिये कि यह दोहा फलीभूत हो….. साईं इतना दीजिये, जामे स्कूटर – कार में पैट्रोल भर जाए। खाने – पीने का हो पूरा इंतजाम, मोबाईल भी रिचार्ज हो जाये। महंगाई से निजात पाने का एक आसान तरीका है…. देश में इन्टरनेट की नि:शुल्क सेवा शुरू कर देनी चाहिए। इससे सभी देशवासी चौबीसों घंटे मोबाईल में ही व्यस्त रहेंगे। अधिक व्यस्त होने के कारण भूख भी कम लगती है। जब भूख कम लगेगी तो महंगाई जैसे नीरस विषय पर कौन समय बर्बाद करना पसंद करेगा।