महिसागर ( महिद्रवे) का गुप्त महातम्य……. संकलन (स्कंद पुराण) “कुमारीका खंड” यह सरिताओं से संबंधित पुराण भगवान शिव के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय द्वारा रचित है! इंडियन न्यूज़ अड्डा जिला ब्यूरो चीफ जिला धार, धर्मेंद्र श्रीवास्तव की धार्मिक रिपोर्ट,

महीसागर (महिद्रवे) का गुप्त  महातम्य
अति सिद्ध गुप्त क्षेत्र………

महिसागर तट सरदारपुर………

यहां कई महान संतों ने तपस्या की है,

और माही तट के दक्षिण में कई  सिद्ध संतों की समाधिया भी स्थित है,

(20600 महातीर्थो का सार महीसागर)
“कर्क रेखा को दो बार काटने वाली इकलौती नदी”
अस्थियां को गलाने वाला विषेष प्रभाव वाला महातीर्थ केवल और केवल महीसागर………
सम्राट विक्रमादित्य के पूर्वज राजा इन्द्रधुम्न के तप के प्रभाव से यज्ञ की वेदी से प्रकट हुई थी मही नदी,

सरदारपुर नगर से 17 किमी दूर पूर्व क्षैत्र  मिण्डा नाम से प्रसिद्ध ग्राम मे पुण्य प्रतापी राजा इन्द्रधुम्न के पुण्य प्रताप से प्रकट हुई मही नदी,

कालांतर मे अपभ्रंष होकर इसका नाम माही हो गया,

अर्थगत् व्याख्या करे तो मही का अर्थ होता है,

(पृथ्वी)

और माही का अर्थ होता है,

(माखन)

अपभ्रंष शब्द को ना लेते हुए मनुष्य को त्रिसंध्या के साथ-साथ मही शब्द का उच्चारण अपने जाप मंत्र में सम्मिलित करना चाहिए संसार की अनेक नदियां पर्वतो से प्रकट हुई हैं,

20600 महा तीर्थों में यह पहला तीर्थ हैं,

जिसके यज्ञ की वेदी के साथ-साथ पृथ्वी से प्रकट होने के प्रमाण स्कंद पुराण के कुमारीका खण्ड मे मिलते हैं।

एक मांगलिक अवसर के समय ब्रम्हदेव ने ब्रम्हलोक मे धार्मिक आयोजन किया जिसमे अखिल ब्रह्मांड के समस्त तीर्थो को आमंत्रित किया।

उस दौरान ब्रम्हलोक मे सारे तीर्थो के आ जाने से ब्रम्हाजी भाव विहल हो गये, और वह यह निर्णय नहीं कर पा रहे थे,

कि महातीर्थो के आगमन पर उनके सम्मान मे अर्घ देना ब्रम्हाजी का धर्म था।

इस दौरान उन्होंने पधारे तीर्थो से प्रश्न कर लिया कि आज मेरे ब्रम्हलोक मे सारे तीर्थो के पहुचने से मेरा ब्रम्ह लोक धन्य हो गया।

किंतु हे महामना मैं इस निर्णय पर नहीं पहुॅच पा रहा हू कि सम्मान स्वरुप प्रथम अघ्र्य किसे प्रदान करु

सभा के बीच मे यह प्रष्न सुनकर महातीर्थो के बीच विराजे महीसागर ने आगे आकर अपने मे अपनी जलराषि मे पाये जाने वाले धार्मिक आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक गुणों का बखान करना आरंभ किया।

सारे तीर्थ नतमस्तक होकर महीसागर द्वारा अपने स्वयं की विषेषता को बताये जाने के गुण को श्रवण करने लगे।

इसके मध्य तपस्या मे लीन ब्रम्हा के पुत्र धर्म ने जब महातीर्थ महीसागर को स्वयं का वर्णन अपने ही मुख से करते हुए श्रवण किया तब वे अत्यधिक क्रोध मे आ गए और आवेष मेआकर अंजुली मे जल भरकर महीसागर को श्राप दे दिया।

श्राप देते समय उन्होंने इन शब्दों का उच्चारण किया।

हे महीसागर तूने अपना बखान स्वयं किया है।

इस नाते तू इन गुणों से युक्त होकर नहीं रह सकते।

मैं तुझे श्राप देता हू कि इसी क्षण से तेरा सारा महातम्य नष्ट हो जाए।

इन शब्दो को सुनकर सारे तीर्थो मे खलबली मच गई।

त्राहीमाम त्राहीमाम का उच्च स्वर पूरे ब्रम्हाण्ड मे गुंज गया।

कुछ क्षणों के लिए कालरुपी समय ठहरसा गया।

संक्षिप्त विराम के पश्चात् तीर्थो मे आपसी विमर्ष आरंभ हुआ। इस दौरान यह निर्णय लिया गया कि देव़ऋषि नारद को आमंत्रित किया जाए।

कुछ अंतराल के पश्चात् विभिन्न ऋषि के साथ देवऋषि नारद के मुख्य आतिथ्य मे सभा आरंभ की गई।

ब्रम्हा के पुत्र धर्म को सभा मे उपस्थित होने का आदेष दिया गया।

सभा में धर्म के उपस्थित होने के पश्चात विभिन्न ऋषियो ने सघन विचार विमर्ष के पश्चात देवऋषि नारद को श्राप के संबंध मे तर्क प्रस्तुत करने हेतु आग्रह किया सभा को आगे बढ़ाते हुए देवऋषि नारद ने धर्म से कहा हम सभी तो कोटि-कोटि देवताओ के साथ आपके पिताश्री ब्रम्हा के आदेष का अनुसरण और पालन करते हैं।

किंतु हे धर्म, सभा के द्वारा मुझे निर्देषित किया गया है कि आपके द्वारा महीसागर को दिये गये श्राप के संबंध मे तर्क प्रस्तुत करु।

तो है,

धर्म आपने क्रोधावेष मे आकर बहुत ही गलत निर्णय ले लिया हैं,

और इस निर्णय को परिवर्तित करना नितांत आवष्यक हैं, अन्यथा श्रृष्टि का संचालन रुक जाएगा।

यहां अपनी महिमा का बखान महीसागर ने जब किया  तब  आपके पिताश्री ने आव्हान किया था,

सभी तीर्थो से कि मुझे अघ्र्य देना हैं,

और मैं उचित निर्णय पर नहीं पहुॅच पा रहा हॅू।

मुझे तो किसी तीर्थ मे कम या ज्यादा दृष्टिपात हीं नही हो रहा हैं, उनके इस निवेदन पर इन सारे तीर्थो मेश्रेष्ठ तीर्थ महीसागर ही हैं।

जो गुण महीसागर के जल मे हैं,

वह किसी अन्य तीर्थ के जल मे नहीं हैं,

और अघ्र्य लेने का अधिकारी महीसागर तीर्थ ही हैं।

उसके पश्चात भी आपने आवेष मे आकर जो श्राप दिया हैं

वह सिरे से निराधार हैं।

अपितु तुम्हे अपना श्राप बिना विलम्ब किए वापस लेना होगा पूरी सभा से ब्रम्हा के पुत्र धर्म ने क्षमा याचना की और निवेदन किया कि हे सभा सदो यद्यपि मैं श्राप दे चुका हूं,

विधि के नियमानुसार इस दिये हुए श्राप को वापस नहीं ले सकता,

अब आप ही कोई युक्ति सुझाइए।

इस दौरान पूरी सभा मे (शून्य )

सी शांति पसर गई।

थोड़े समय के पश्चात पुनः सभी ऋषि मुनियो ने नारदजी से आग्रह किया कि आप के द्वारा प्रस्तुत युक्ति को हम सभी सर्व समर्थन से स्वीकार करेंगे।

आप ही कोई युक्ति सुझाइए।

इस बीच धर्म ने अपना पक्ष रखते हुए विषाल सभा से आग्रह किया, करबद्ध निवेदन किया कि यद्यपि श्राप तो दिया जा चुका है किंतु मे अपने विवेक से यह कर सकता हू,

कि इसको समाप्त न करते हुए परिवर्तित जरुर कर सकता हू, और वह परिवर्तन यह है, कि हे महीसागर आपके गुण समाप्त न होकर गुप्त हो जायेगे, और कलयुग के प्रथम चरण के आरंभ के साथ आपके इन गुनो को आपके इस महातम्य को आपके भक्त उजागर करेंगे,

इसका प्रभाव कलयुग के प्रथम चरण के आरंभ होने के साथ ही अखिल ब्रम्हाण्ड मे दिखाई दे रहा हैं।

सरदारपुर नगर से आरंभ होने वाली विषाल और भव्य पंचकोषी पदयात्रा जो 25 वे वर्ष मे प्रवेष कर मही के अनवरत प्रवाह की तरह दिन दुनी और रात चैगुनी मही भक्तो के संख्या बल मे दिखाई दे रही हैं।

यह पंचकोषी पदयात्रा जिसमे भक्तजन म.प्र., गुजरात और राजस्थान से अपनी अपनी मनोकामनाओ की सिद्धि को लेकर विषाल एवं भव्य पंचकोषी पदयात्रा मे सम्मिलित होते है, और जीवन को धन्य बनाते हैं।

यह पंचकोषी पदयात्रा पांच पढ़ाव के माध्यम से शुक्लपक्ष की एकादषी से आरंभ होकर पूर्णिमा को पूर्ण होती हैं।

स्कंद पुराण के कुमारिका खण्ड मे इसके उदगम और अंतिम छोर पर खम्बात की खाड़ी मे सागर के साथ विलिन होने के प्रमाण मिलते हैं।

प्रत्येक माह की अमावस्या और पूर्णिमा तिथी पर 13 किमी की यात्रा तय कर समुद्र अपने बहाव के साथ उल्टा बहकर मही के निकट जाता हैं।

यह शास्त्र प्रमाण हैं, वैज्ञानिक भाषा मे इसे ज्वारभाटा कहते हैं। उदगम से लेकर विलिन होने तक 108 षिवलिंग के प्रमाण हैं। उदगम स्थान से पष्चिम की ओर प्रथम षिवलिंग झिर्णेष्वर महादेव के नाम से विख्यात हैं।

जिसकी दूरी उदगम स्थान से 11 किमी हैं।

यह झीर्णेष्वर धाम ग्राम कुमारपाट के माही तट पर स्थित हैं। इसके पश्चात दूसरा षिवलिंग सिद्धेष्वर महादेव चवरीआम्बा ग्राम केली मे स्थित हैं। तृतीय षिवलिंग श्रृंगेष्वर महादेव ग्राम सिंगेष्वर मे मधुकन्या एवं महीसागर के संगम स्थल पर स्थित हैं।

इस षिवलिंग की कथा के प्रमाण कुमारीका खण्ड मे मिलते हैं। इसकी कथा इस प्रकार से हैं। किसी श्राप के प्रभाव से महर्षि श्रृंगी के सिर पर एक श्रृंग उग आया था जो उन्हें उठते बैठते, सोते व जागते बहुत दर्द करता था,

इस दौरान उन्हें देवताओं और ऋषि यों  का परामर्ष मिला। उन्होंने ने यह परामर्ष दिया कि महातीर्थो मे स्नान करो और तीर्थो के पवित्र जल से भगवान शिव का अभिषेक करो। निर्देष का पालन करते हुए श्रृंगी ऋषि उत्तर-दक्षिण पूर्व क्षैत्र के सारे तीर्थो मे स्नान कर षिव अभिषेक करने लगें।

जब उपरोक्त तीनो दिशाओं में तीर्थाटन करते हुए वह निराष हो गए तो मार्ग  मैं उन्हें देवऋर्षि नारद का दर्षन हुआ।

देवऋषि नारद ने ऋषि श्रृंगी से कहा है…….

ऋषिवर  अपने हृदय मे निराषा को स्थान मत दो।

तीन दिशाओ तो आप तीर्थाटन कर चुके हो

अब अंतिम दिषा बची हैं। थोड़ा और प्रयत्न करो पूर्व से पष्चिम की ओर प्रस्थान करो।

कुछ दूरी की यात्रा तय करने के पश्चात तुम्हे 20600 तीर्थो का सार महीमधुकन्या संगम के दर्षन होंगे वहां रुककर ब्रम्ह मुहूर्त मे स्नान आदि से निवृत होकर संगम क्षैत्र मे षिविलिंग की स्थापना कर भूतभावन भगवान शिव का श्रृंगेष्वर महादेव के नाम से पूजन अभिषेक कर कुछ दिनो तक तीर्थ क्षैत्र मे विश्राम कर संगम क्षैत्र मे नित्य त्रिसंध्या कर स्नान कर भोलेनाथ का अभिषेक पूजन संगम क्षैत्र के जल से करने पर चमत्कारिक रुप से आपका यह श्रृंग गलकर समूल नष्ट हो जाएगा।

तब श्रृंगी ऋषि ने देवऋषि नारद के वचनो को अनुसरण करते हुए उपरोक्त धर्म संयत कार्य सम्पन्न किया।

आष्चर्यजनक घटना घटी ओर और देवऋषि नारद का कथन सत्य हुआ और कुछ समय के अंतराल मे आष्चर्यजनक रुप से श्रृंगी ऋषि के सिर का श्रृंग मही संगम के जल मे विलिन हो गया।

आज भी यह षिवलिंग और प्रचीन षिवमंदिर श्रृंगेष्वर धाम के नाम से संगम क्षैत्र मे स्थित हैं। पंचकोषी यात्रा के दौरान यात्रीगण तीसरे पढ़ाव के रुप मे यहाँ रात्रि विश्राम कर भूतभावन भगवान भोलेनाथ का अभिषेक एवं पूजन श्रृंगेष्वर महादेव के नाम से करते हैं।

इसी तरह उदगम क्षैत्र से लेकर खम्बात की खाड़ी तक महीसागर के तट पर अलग-अलग नामो से 108 षिवलिंग के होने के प्रमाण स्कंद पुराण के कुमारीका खण्ड मे मिलते हैं। कलीकाल  मे भक्तजन विषाल भक्त समुह के माध्यम से मां की पंचकोषी यात्रा को अपनी-अपनी मनोकामना को लेकर करते हैं। माही को पंचोपचार के साथ दूध दही एवं माखन का नैवेध्य लगाया जाता है, जो उन्हं विषेष प्रिय हैं।

अन्य नदियों में स्नान ध्यान का वार सोमवार है

जबकि अकेले महीसागर का पुण्यशाली वार रविवार हैं।

रविवार को एक बार मही मे स्नान करने से पांच बार के गंगा स्नान का पुण्य मिलता हैं।

संकलन -:

स्कंद पुराण के कुमारीका खंड से…….

(संकलनकर्ता)

महिसागर का विग्रह चित्र

धर्मेंद्र श्रीवास्तव